लेखनी कविता -ज्ञान-ध्यान कुछ काम न आए - बालस्वरूप राही
ज्ञान-ध्यान कुछ काम न आए / बालस्वरूप राही
ज्ञान ध्यान कुछ काम न आए
हम तो जीवन-भर अकुलाए ।
पथ निहारते दृग पथराए
हर आहट पर मन भरमाए ।
झूठे जग में सच्चे सुख की
क्या तो कोई आस लगाए ।
देवालय हो या मदिरालय
जहाँ गए जाकर पछताए ।
तड़क-भड़क संतो की ऐसी
दुनियादार देख शरमाए ।
माल लूट का सबने बाँटा
हम ही पड़े रहें अलसाए ।
जो बिक जाता धन्य वही है
जो न बिके मूरख कहलाए ।
टिकट बाँटने के नाटक में
धूर्त महानायक बन छाए ।
शिष्टाचार भ्रष्टता दोनों—
ने अपने सब द्वैत मिटाए ।
जहाँ बिछी शतरंज वही ही
शातिर बैठे जाल बिछाए ।
अब के यूँ खैरात बँटी है
सारा किस्सा दिल बहलाए ।
दुर्जन पार लगाता नैया
सज्जन किसका काम बनाए ।
राही तो सीधे-सादे है
कौन भला क्या उनसे पाए ।